Monday, June 20, 2011

कुछ शब्द दिल से

पिछले तीन-चार दिन से मै कुछ कुछ लिखते रहा हूँ अपने आर्टिकल के द्वारा मैंने कुछ मुद्दों को उठाने का प्रयास किया वो कितने सार्थक रहे,ये तो मै आकलन नहीं कर सकता पर अगर मै सतही तौर पर भी पाठको को झखझोरने में भी अगर कामयाब हुआ हूँ , तो इसे मै अपनी शुरूआती सफलता कह सकता हूँ आज मैंने सोचा की क्यों दो टूक अपनी बात आज आपके समक्ष कहू जो सीधे दिल से निकल रही है शायद ये आपको शब्दों में पिरोया मायाजाल लगे ,लेकिन जब दिल में छुपी बातें मन को व्यतिथ करने लगे तो उसे व्यक्त करना ही पड़ता है यही आज मै करने बैठा हूँ आपके समक्ष सभी मुद्दों को एक साथ रखना तो मुश्किल होगा पर वक्त-बेवक्त कुछ शब्द कहने की मैं कोशिश करता रहूँगा

आज मैंने कुछ ऐसा देखा की मेरा हृदय द्रवित हो गया बाल मजदूरी को प्रतिबंधित करने के लिए भारत सरकार ने कानून बना रखा है , पर नतीजा शिफ़र है छोटे छोटे मासूम बच्चो पर हो रहे मानसिक और शारीरिक अत्याचार पर शायद हमारी निगाह जाती ही नहीं अगर जाती भी है तो हमें असर नहीं होता कारण एकमात्र है, हम संवेदनहिन् हो गए है हमारी भावनाए मर गयी है तेज़ और आधुनिक ज़िन्दगी के आवरण में हम संवेदनहीन होते जा रहे है हम शायद यह भूल रहे है की हमारे अन्दर भी एक दिल है , हम हाड़ -मांस से बने पुतले है जिनके अन्दर भावनाएं उमड़ती है हम मशीनी मानव बनते जा रहे है

आज शाम होटल में चाय पीते वक्त हलक में ही लटक गयी वहां काकर रहे बच्चे से चाय से भरी केतली क्या जमीन पर गिरी, मालिक ने उसके कमर पर खजूर की छड़ी ही तोड़ दी उसे दर्द से बिलबिलाते देखकर मै अन्दर से काँप गया. मैंने भीच बचाव करने की कोशिश की लेकिन निरंकुश मालिक ने एक ना सुनी और ना ही किसी सज्जन ने मेरा विरोध में साथ दिया उसके मासूम चेहरे पर गिरने वाले आंसू अभी भी मेरा कलेजा चिर के रख दे रहे है मै असहाय अकेले कुछ ना कर सका मैं समाज के संवेदनहीनता पर शर्मिंदा हूँ अपने आप को विवेकशील प्राणी कहने में घृणा हो रही है लगता है आदमी आत्मीय ना हो कर बाजारवाद संस्कृति के दलदल में डूब चूका है प्रोफिट कमाने के चक्कर में अपने संस्कार और संस्कृति को ताक पर रख दिया है जिस भारतीय संस्कृति में बच्चो को भगवान का स्वरुप माना जाता है,वहा उनकी ऐसी जिल्लत देख इंसानियत भी शर्मा रही है ऐसा कर हम तो भगवान का ही अपमान कर रहे है

मैं सब से एक ही प्रश्न करना चाहूँगा क्या वो अपने कलेजे के टुकड़े के साथ ऐसा कर पाएंगे? आपका उत्तर होगा "नहीं", क्यूंकि उसके लिए आपके दिल में दर्द है ऐसे में कभी ये सोचा वो भी किसी का लाडला होगा,किसी के आँखों का तारा होगा? हम ऐसा सोचना भूल चुके है क्योंकि मनुष्य स्वार्थी हो चूका है उसे अपने और अपने हित की चिंता है मनुष्य "सामाजिक प्राणी" होने के बजाये "स्वार्थी प्राणी " बन चूका है, जिसके पास संवेदना ही नहीं है अब शायद भगवान को भी अपने इस मनुष्य रूपी कृति को बनाने पर अफ़सोस ही हो रहा होगा।शायद पचास के दशक में लिखा गया गीत आज सत-प्रतिशत प्रासंगिक है-
"देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान,
कितना बदल गया इन्सान"

आज दो शब्द दिल से आपके समक्ष रखने का "सार्थक प्रयत्न" मैंने कियाऐसे बेबाक अभिव्यक्ति ले कर मै भविष्य में भी अता रहूँगा "कुछ शब्द दिल से के साथ"। अपनी प्रतिक्रिया एवं सहयोग अवश्य दे

2 comments:

  1. yup....very true...nowdays people have become very insensitive.....they are not concerned with any anti-social activities going on around them...unless and until they or their near and dear ones are involved in it....the more literate people are becoming...the more selfish and corrupt they are becoming......if this is the scenario of one of the capital city of a state of our country........u can imagine....what's going on in the interiors of our country....really feeling ashamed of being educated...if educated people are like this.........:-(

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  2. @vandu.....meri bhavanao ko smajahne ke liye dhanyavad

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