Friday, August 24, 2012

व्यवसायिकता के भंवर जाल में फँसा "मैं "

आज मै अपने व्यवसायिक जिंदगी में खो सा गया हूँ.अपनी पहचान को स्थापित करने के चक्कर  में अपने आप को गवां बैठा.आत्ममंथन करता हूँ- इस "मैं" से साक्षात्कार करने के लिए लगता है मानो  सिग्नल ही कमजोर है ,लिंक बैठ ही नहीं पा रहा.मर्ज लाइलाज तो नहीं, लेकिन गंभीर जरूर मालूम पड़ता है. अपने संस्कारो में इमानदारी और स्वाभिमान उपहार में पाया.व्यावसायिक ध्रुव के मैले वातावरण में खुद को बचाए रखेने कि जद्दोजहद रोज करनी पड़ती है.संस्कार तो बच गए धूमिल होने से, लेकिन कर्तव्यपरायणता के भार  तले अपने अंदर के स्वाभाविक मनुष्य को खो बैठा.उसे आवाज़ देने कि कोशिश कि,लेकिन पाया वो तो मुझसे कोसो दूर खड़ा है.उसे अपने करीब लेन  के लिए अनुनय किया,परन्तु परिणाम सिफर ही रहा.मेरे बिछड़े हुए "मै" ने मुझसे पुछा - अपने कार्यजीवन को सफल बनाने में तुमने मुझसे धोखा क्यों किया?क्यों अपने अंदर के रचनात्मकता को बेमौत मार डाला?क्यों अपने शारीरिक अवस्था को खराब करता गया?क्या तुम्हारे  काम को वो पहचान मिली जिसकी तलाश थी,लाख प्रयास के बाद भी तू वही खड़ा है,फिर क्यों तुमने अपने प्राकृतिक मनोभाव कि तिलांजलि दे डाली.आज मै किनकिर्तव्यविमूढ खड़ा था.मेरे पास जवाब थे ही नहीं.घुटनों के बल बैठा,आँसू बहा रहा था.अपने आप को खोने का गम खाए जा रहा था.
एक विराम,फिर फ्लैशबैक में मेरे आँखों के सामने गुजरे पल के छाया चित्र चल पड़े.उसे अपने समझ के छन्ने से छानने का प्रयास करने लगा.कार्यस्थल पर अपने पहले दिन को देखा-एक उम्मीदों से भरा नवजवान ,जो कम क्षमता होते हुए भी अपने आपको स्थापित करके खुद को एवं परिवार को संतुष्ट करने का सपना पाल रखा है.सहकर्मियों के व्यव्हार से खिल उठा ,लगा पाने को आसमान है और खोने को कुछ नहीं.भावनाये कुलांचें मारने  लगी .कुछ दिन बीते ,तो शायद इस कोरे मानसपटल पर ओछी राजनीती ने  कुप्रभाव डाला.ऊपर से मीठी बातें करने वाले सहकर्मी,पीठ पीछे धोखा देते दिखे.उसके छोटे छोटे गलतियों को भी स्व-हित के लिए भुनाया जाने लगा.पर वो इन सबसे बेखबर काम करता गया.क्यूँकि,उसने ऐसे संस्कार पाए ही नहीं थे और शायद  इसलिए वो सहकर्मियों के दुर्भावना को समझ नहीं पाया.जब तक समझता,देर हो चुकी थी .पर संभलना ही जिंदगी का पर्याय है.सँभालने के चक्कर में ,अपने जीवन के आवश्यकताओं  को भूलता गया और काम के पीछे समर्पित हो गया.चाहे वो काम उसके लायक हो या नहीं.मेहनत रंग लायी ,उसके प्रयास को सराहा गया .लेकिन अपने को ज़माने के प्रयास में वो अपने अंदर के व्यक्ति से दूर होता गया.उत्साही नौजवान हतास हो चूका था.उसकी खुशमिजाजी उसका ही मजाक उड़ा रही थी.रोज सुबह उसकी अंतरात्मा से दो-दो हाँथ होती.किसी तरह अपने आपको वो कार्यस्थल के बाजिगारियों से सामंजस्य बिठाने ले के चल पड़ता.शाम को निढाल हो पड़ जाता.उसके पास कुछ करने कि शक्ति नहीं होती .इसी दैनिक उहापोह में अपने आपको तलाश करने कि कसमकस अभी भी जारी है.इस मनोभाव को शायद  गज़ल कि ये पंक्तिया अक्षरसः परिभाषित करती है-
"एक आह भरी होगी,तुमने न सुनी होगी,
जाते जाते तुमने,आवाज़ तो दी होगी ,
हर  वक्त यही था गम,उस वक्त कहा थे  हम
जहाँ तुम चले गए!"
ये गंभीर अभिव्यक्ति व्यवसायिकता के भंवर में फंसे सभी जनों को समर्पित है.ये एक "सार्थक प्रयत्न "उन्हें नींद से जगाने का है जहाँ वो अपने सपने के उड़ान में खुद को खोते चले जा रहे है.