Tuesday, December 27, 2011

कोरा ज्ञान करे कल्याण!

बहुत दिन हुए ,शहर की गलियों में नहीं घूम सकाआज सोचा चलो सर्दी के साथ साथ थोड़ी जोर आजमाइश कर लेनिकला विरानियों की खाक छानने के लिएगली के कोने में चाय दुकान पर जबरदस्त भीड़ थीमामला ठण्ड का था,चाय की चुस्कियों के साथ शहर की गोस्सिप वातावरण में गर्मी फैला रही थीबे-सर पैर के लॉजिक कानों के बगल से गोलियों की तरह गुजर रहे थेअनायास ही मुझे साहित्यकार वनमाली का दिया दृष्टान्त याद आया जहा उन्होंने रेल के डिब्बे में कई संस्कृतियों और सोच के मिलन को समाज की प्रतिकृति बताया थाएक समय लगा मनो मै वनमाली जी की सोच को दुकान की भीड़ में प्रतिबिंबित होते देख रहा हूँउनकी लाज़वाब दार्शनिक सोच ने मेरे चेहरे पर एक मुस्कान बिखेर दीतन्द्रा भंग कर आस-पास की बतों को समझ के छन्ने से छानने के प्रयास में लग गयाकही राजनीतिक उठापटक,कही फ़िल्मी गप और कही सचिन के महाशतक की संभावनाओ पर कयास-चाय की चुस्कियों के आनंद को दुगना करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. यही मनोभावों की अभिव्यंजना की मुल्यांकन का अभूतपूर्व अनुभव प्रतीत हो रहा था
उस भीड़ में एक बुद्धिजीवी सा दिखने वाला अपनी बतों को मनवाने में लगा थाउसके कुछ चमचे उसके दही में सही मिला रहे थेमेरा ध्यान उस ओर खीच गया , बातें किसी प्रतिष्ठित परीक्षा में पूछे गए प्रश्न को लेकर हो रही थीमहाशय अपने कयासों के बयान चला रहे थे और खोखले अनुभव के आड़ में कड़ाके की सर्दी में रंग जमा रहे थेमामला उनके पक्ष में जाता दिख रहा थाउस समूह में एक चुप-चाप दिखने वाला नवयुवक अपने अनद्रोइड मोबाइल में छेड़खानी कर रहा थासहसा वो चिल्लाया- सरजी आपकी लॉजिक बकवास है,गूगल तो कुछ और ही कहता हैइन्टरनेट के युग में महशय की बोतलेबाजी की बत्ती गुल हो गयीऐसा लगा, महाशय के सर मुंडाते ही ओले पड़ेइन्टरनेट के पन्नो ने उनकी पोल खोल दी थी,अब चमचे भी मूंह छिपा के हँस रहे थेकहे तो लोकल भाषा में उनकी पोजीशन की व्हाट लग गयी थीमै भी मंद-मंद मुस्कुराता हुआ निकल पड़ासच ही कहा गया है आधा ज्ञान कोरा हैबिना जानकारी के हांकने से प्रतिष्ठा भी दामन छोड़ देती है।कोरा ज्ञान करे कल्याण!