Tuesday, December 27, 2011

कोरा ज्ञान करे कल्याण!

बहुत दिन हुए ,शहर की गलियों में नहीं घूम सकाआज सोचा चलो सर्दी के साथ साथ थोड़ी जोर आजमाइश कर लेनिकला विरानियों की खाक छानने के लिएगली के कोने में चाय दुकान पर जबरदस्त भीड़ थीमामला ठण्ड का था,चाय की चुस्कियों के साथ शहर की गोस्सिप वातावरण में गर्मी फैला रही थीबे-सर पैर के लॉजिक कानों के बगल से गोलियों की तरह गुजर रहे थेअनायास ही मुझे साहित्यकार वनमाली का दिया दृष्टान्त याद आया जहा उन्होंने रेल के डिब्बे में कई संस्कृतियों और सोच के मिलन को समाज की प्रतिकृति बताया थाएक समय लगा मनो मै वनमाली जी की सोच को दुकान की भीड़ में प्रतिबिंबित होते देख रहा हूँउनकी लाज़वाब दार्शनिक सोच ने मेरे चेहरे पर एक मुस्कान बिखेर दीतन्द्रा भंग कर आस-पास की बतों को समझ के छन्ने से छानने के प्रयास में लग गयाकही राजनीतिक उठापटक,कही फ़िल्मी गप और कही सचिन के महाशतक की संभावनाओ पर कयास-चाय की चुस्कियों के आनंद को दुगना करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. यही मनोभावों की अभिव्यंजना की मुल्यांकन का अभूतपूर्व अनुभव प्रतीत हो रहा था
उस भीड़ में एक बुद्धिजीवी सा दिखने वाला अपनी बतों को मनवाने में लगा थाउसके कुछ चमचे उसके दही में सही मिला रहे थेमेरा ध्यान उस ओर खीच गया , बातें किसी प्रतिष्ठित परीक्षा में पूछे गए प्रश्न को लेकर हो रही थीमहाशय अपने कयासों के बयान चला रहे थे और खोखले अनुभव के आड़ में कड़ाके की सर्दी में रंग जमा रहे थेमामला उनके पक्ष में जाता दिख रहा थाउस समूह में एक चुप-चाप दिखने वाला नवयुवक अपने अनद्रोइड मोबाइल में छेड़खानी कर रहा थासहसा वो चिल्लाया- सरजी आपकी लॉजिक बकवास है,गूगल तो कुछ और ही कहता हैइन्टरनेट के युग में महशय की बोतलेबाजी की बत्ती गुल हो गयीऐसा लगा, महाशय के सर मुंडाते ही ओले पड़ेइन्टरनेट के पन्नो ने उनकी पोल खोल दी थी,अब चमचे भी मूंह छिपा के हँस रहे थेकहे तो लोकल भाषा में उनकी पोजीशन की व्हाट लग गयी थीमै भी मंद-मंद मुस्कुराता हुआ निकल पड़ासच ही कहा गया है आधा ज्ञान कोरा हैबिना जानकारी के हांकने से प्रतिष्ठा भी दामन छोड़ देती है।कोरा ज्ञान करे कल्याण!

Saturday, October 15, 2011

हिसार में अन्ना का तड़का

गलियाँ हरियाणा की हो और दाल में तडके की महक आये ये असंभव ही होगाहरियाणा की दाल और "लाल" पुरे भारत में प्रसिद्ध हैयहाँ की राजनीति हमेशा तीन "लाल" ध्रुव के बीच घुमती रही-देवीलाल,बंसीलाल और भजनलालइन्ही तीन "लाल" की राजनितिक दाल यहाँ गलती आयी हैवक्त बदला,फिजा बदली और राजनितिक समीकरण भी बदलेहिसार उप -चुनाव इसका जीता जगता उदाहरण बन गया और लग गया हरियाणा की राजनितिक दाल में "अन्ना का तड़का"। ये तड़का कांग्रेस को तीखा लगता दिखाई पड़ रहा हैकांग्रेस की हिचकिया विपक्षियो के दिल में खुशहाली पैदा कर रही हैदबी जुबान में कांग्रेस को जोर का झटका धीरे से लगा मालूम पड़ रहा हैमतपेटियो में जनमत बंद पड़ा है, चारो तरफ कयासों के तीर चल रहे हैजीत का ऊंट किस करवट बैठेगा ये तो समय बताएगा पर टीम अन्ना का कांग्रेस के खिलाफ अभियान उनकी नींद हराम करने में कामयाब हुई है

मुकाबला त्रिकोणीय है, भाजपा समर्थित हरियाणा जनहित कांग्रेस ने भजनलाल के मृत्यूपरांत खली सीट पर उनके बेटे कुलदीप बिश्नोई को जनता के भावनात्मक अभिव्यज्नाओ को भुनाने के लिए उतरा है, वही आई एन एल डी ने देवीलाल के पोते और प्रकाश चौटाला के बेटे अजय चौटाला को मैदाने जंग में उतारा हैकांग्रेस भी कम नहीं थी , उसने हूडा के खासमखास रहे पूर्व सांसद जय प्रकाश को चुनावी समर में उतारापर सारे समीकरण धरे के धरे रह गए जब टीम अन्ना के कांग्रेस के खिलाफ अपना बिगुल फूँकाचुनावी गणित चरमराने लगी, अगर एक सुर्वे की बात मने तो २५% जनता इस अभियान से प्रभावित होकर वोटिंग कियाये तथ्य अगर सही है तो चौकाने वाला हैपर सिक्के का दूसरा पहलु यह भी है की कांग्रेस विरोधी वोट गए किस खेमे मेंअगर वोटों का ध्रुवीकरण एक तरफ होकर कांग्रेस के विरोधी दो मुख्य ध्रुवों में हो गया तो भी चुनावी समीकरण गड़बड़ा सकते है और कड़ी टक्कर की आशा की जा सकती हैयह लोकतंत्र के धरातल पर "टीम अन्ना" का लिटमस टेस्ट भी हैअगर "टीम अन्ना" भारी पड़ी तो आने वाले दिलो में राष्ट्र की राजनितिक परिदृश्य में कई बदलाव देखने को मिल सकते है

मौके पर छक्का मरने में रामदेव की सेना भी पीछे रही,उसने भी बाबा पर रामलीला मैदान में हुए अत्याचार को भुनाने में कोई कसार नहीं छोड़ीहिसार में कई जगह सभा कर,उसने भी कांग्रेस की नीव हिलाने में खून-पसीना लगा दिया

ये तो सतही बातें हुई,पर टीम अन्ना का अभियान अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो निशाने पर सिर्फ कांग्रेस ही क्यों,बाकि की पार्टियाँ क्या दूध की धूलि हुई है? यह यक्ष प्रश्न है?अगर हिसार में तीन मुख्य उम्मीदवारों के संपत्ति के विवरण का अवलोकन करे तो एक नया ही कलेवर निकलता हैएसोसियशन ऑफ़ डेमोक्रटिक रिफोर्म्स के डाटा के अनुसार-कुलदीप बिश्नोई के पास ४८.८५ रुपये की चल-अचल सम्पति है ,वही इनके ठीक पीछे पीछे अजय चौटाला लगभग ४० करोड़ रुपये के चल -अचल सम्पति के साथ दुसरे पायदान पर हैवहीँ कांग्रेस के उम्मीदवार जय प्रकाश के पास लगभग .१६ करोड़ रुपये के चल-अचल संपत्ति के मालिक हैजनता के होनेवाले संभावित सेवक करोडपति हैयहाँ विचार करने योग्य बात ये है ,अगर "टीम अन्ना" भ्रष्टाचार के
खिलाफ खड़ी है, तो किसी पार्टी विशेष के बजाये सभी भ्रष्टाचारियो के खिलाफ आवाज़ क्यों नहीं उठा रही और "राईट टू रिकाँल " आप्शन के लिए आन्दोलन क्यों नहीं कर रही!

अगर मेरी राय माने तो , वोटिंग मशीन में उम्मीदवारों के सूचि के साथ "इनमे से कोई नहीं" विकल्प डालने का वक्त गया हैभारतवासी जागेंगे तो ये भी हमें जल्द दिखने को मिलेगा और "टीम अन्ना" को भी शायद राजनितिक दाल में तड़का लगाने के लिए मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी

Friday, August 26, 2011

मै भी अन्ना !

अन्ना हजारे दुसरे गाँधी के रूप में उभरे हैं ,सारे भारत को एक कड़ी में जोड़ दियासरकार भी झुकती दिख रही हैसच्चाई की जीत निश्चित हैलोकपाल विधेयक शायद भारत को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला ही देइस आन्दोलन का टैग लाइन है -"मै भी अन्ना"',सारा देश "अन्नामय" हो गया है अन्ना भी फैशन ट्रेंड हो गए, पहली बार एक सत्यव्रत और सादगी से भरे व्यक्तित्व को सबने अपना रोल मॉडल और फैशन- आइकॉन बनायातो हमारा पप्पुआ कैसे पीछे हटता , वो भी बोला- "मै हु अन्ना"।
पर पप्पू टेंशन में गया ,आखिर कैसे बने वो अन्नाफ़ौरन अपनी मित्र मंडली की बैठक बुलाईआज गली के सारे निकम्मे गंभीर चिंतन में व्यस्त हैभाई! आखिर अन्ना कैसे बनेतभी टिंकुआ बीच में टपका- अरे न्यूज़ -चैनल देखे नहीं क्या? उसमे तो अन्ना चौबीस घंटे चौकन्ना है!रामू बोला- टिंकू भैया क्लियर बताओ,काहे कन्फ्यूज करते होपप्पू ने कप्तानी संभाली-अरे भाई लोग! कहानी सिम्पल है हम लोग भी वही करते है जो अन्ना और उनके समर्थक टी.वी पर कर रहे हैसभी ने एक स्वर में कहा-"व्हाट ऍन आईडिया सरजी"।
कोर -कमिटी का गठन हुआऔर विचार- विमर्श का दौर चालू हुआकप्तान पप्पू बोला-कुछ ऐसा करो की लोकल मीडिया में चमक जायेवैसे भी लोकल पब्लिक पूछती नहीं है, शायद हमारी कुछ मार्केट वैल्यु बढ़ जाये यही बहाने-"जय हो अन्ना!"। फ़ाइनल डिसीजन हुआ ,कैंडिल मार्च निकालने कापुरे ग्रुप में चंदा हुआ ,जद्दोजहद के बाद तीन हज़ार रूपये ही गएसारे पैसे गाँधी टोपी,बैनर-पोस्टर ,मोमबत्ती और बाजा-बत्ती के मार्केटिंग में चले गएपप्पू भैया लोकल पत्रकार साहब को भी फोटो उतारने और छापने का निमंत्रण दे आयेअब सब को शाम का इंतज़ार था
सभी बेसब्री से शाम होने का इंतज़ार कर रहे थेटिंकुआ बोला-ये टाइम आगे क्यों नहीं बढ़ रहा है,दिल में बेचैनी हो रही हैरामू हँसते हुए कहता है- "अखबार में छपने की इतनी बेताबी"। पप्पू बोला-"जो भी हो,बाई गौड़ ! कल सब अखबार खरीद कर पुरे मोहल्ले में बाटेंगे ,फिर देखना अन्ना बाबा की कृपा से हम भी हीरो बन जायेंगेदेखते-देखते शाम हो गयीघड़ी में आठ बजते ही निकल पड़ा अन्ना के समर्थन में कैंडल मार्चवन्दे मातरम ,भारत माता की जय, "अन्ना तुम मत घबराना,तेरे पीछे सारे जमाना " सरीखे नारों से आसमान गूंज उठापुरे शहर का चक्कर लगा लियाअब यात्रा विराम पर पहुचने वाली थी, तभी टिंकुआ चिल्लाया -पत्रकार बाबु अभी तक नहीं आयेपूरा प्रोग्राम का कबाड़ा हो जायेगा,जल्दी फोन लगाओ उसको! पप्पू फोन पर पत्रकार को झल्लाते हुए बोला-जल्दी आईये नहीं तो मामला गड़बड़ा जायेगा और दो सौ रुपया फालतू में नहीं दिए आपकोदौड़ते-हाँफते पत्रकार बाबु आये,झट-झट - फोटो उतारेकैंडल मार्च ख़तम हुआ, पुरे टीम के चेहरे पर चवनिया मुस्कान थीअब था इंतज़ार सुबह के अखबार का!
सभी ने करवटे बदलकर रात बितायीअहले सुबह चार बजे उठ के स्टेशन की तरफ भागे अखबार खरीदनेपेज- पर अपनी फोटो देख के सब का छाती चौड़ा हो गयाऐसा लगा जैसे आज आई..एस की परीक्षा पास कर लीएक स्वर से सभी ने हिप -हिप-हुर्रे का नारा लगाया और दौड़ पड़े अपने मोहल्ले में अपनी महिमा मंडन करने के लिएसभी खुश थे,आज पहली बार कोई अच्छा काम जो किया थातभी पप्पू की नज़र एक वृद्ध आदमी पर पड़ी जो रो रहा थाउससे रहा नहीं गया,उसने पूछा- बाबा! आप क्यों रो रहे हो?। वृद्ध ने अन्ना की फोटो अखबार में दिखाते हुए कहा-"बापू लौट आये है", ऐसी ही चमत्कारी शक्ति बापू के बातों में थी जो सारे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो देती थीआज फिर सारा राष्ट्र भ्रष्टाचार के खिलाफ एक हैये तभी संभव है जब सभी अन्ना बनाने के प्रयास करेपप्पू और उसकी टीम एक टक वृद्ध की बातें सुन रही थीवे भाव विह्ल हो गएकुछ कदम आगे चलकर पप्पू ने अख़बार फेकी और बोला-"यार ! "मै हु अन्ना" का मतलब लोकप्रियता नहीं सबको अन्ना जी की तरह बनाना हैअगर हम खुद बदलेंगे,तो समाज बदलेगाऔर जब समाज बदलेगा तो देश बदलेगाये बात हम क्यों नहीं समझ पाएतभी टिंकुआ बोला-जो भी हो पप्पू भैया सही बोल रहे है,अब हम ओरिजिनल अन्ना बनेंगेंसभी ने अपने जेब से गाँधी टोपी निकाली और सर पर डाल के कहा -"मै हु अन्ना"।
आज का "सार्थक प्रयत्न" अन्ना आन्दोलन के सच को हलके-फुल्के ढंग में रखने का प्रयास थासभी ने इसे गंभीर लेखो के रूप में लिखा तो मैंने सोचा क्यों व्यंग में इन बातों को रखा जायेआलेख में हिंगलिश भाषा का प्रयोग मैंने इसे आम जन -जीवन से जोड़ने के लिए किया है।मेरे प्रयत्न पर अपनी टिपण्णी अवश्य देधन्यवाद!

Wednesday, August 17, 2011

गन तले गणतंत्र

आज हमारे देश को आजाद हुए ६४ वर्ष बीत चुके हैभारत एक स्वतंत्र ,संप्रभु,लोकतान्त्रिक गणतंत्र हैलेकिन हमारी स्वतंत्रता को ग्रहण लग गया हैभारत आज आतंरिक अवं बाहरी आतंकवाद के चपेट में चूका हैएक महामारी की तरह यह समस्या फैलती जा रही हैनक्सलवाद की समस्या विकृत स्वरुप ले रही हैउत्तर बिहार से लेकर आंध्र प्रदेश और उससे सटे महाराष्ट्र की सीमावर्ती इलाके "लाल पट्टी" के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैछत्तीसगढ़,पश्चिम बंगाल के दक्षिणी हिस्से और झारखण्ड इस "लाल आतंक" के साये में जीने को मजबूर हैआतंकवाद का एक दूसरा चेहरा भी है- बढती क्राय्म रेट। इससे शायद ही भारत का कोई राज्य अछुता हैलोकल गुंडों से लेकर अंडरवर्ल्ड के कारस्तानियो से हम भारतीय त्रस्त हैंये तो ट्रेलर मात्र है- सीमा पर से संचालित आतंकवाद तो हमारे शांति को भंग करने का प्रयास करता ही रहता हैऐसे में जबान से अनायास ही फुट पड़ता है-"गन तले है गणतंत्र"-बन्दुक और बारूद के साये में जीने को हम मजबूर है
ये आजकल मीडिया और राजनीतिज्ञों के लिए एक रेडीमेड गरम- मसाले की तरह काम कर रहा है , जरा सी डाल दी -जयका ही बदल गयाजब मुद्दों का कल पड़ जाये ,इस समस्या को तडके में लगा के मौके पैर छक्का लगा दिया जाता हैभोली-भली जनता मीडिया अवं राजनीतिज्ञों के शाब्दिक मायाजाल में फंस जाती हैयही चुक हो जाती हैजनता भिखरे मानस के साथ ,अलग सोच,परिवेश एवं ज्ञान के कारण एकजुट हो नहीं पाती और लोकतंत्र का वाहक "लोकमत" जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ देता हैयही भारत की "अखंडता में एकता" की परिकल्पना धुल चाटने को मजबूर हो जाती है। "गन" के डर से "जन-मन-गन" आक्रांत हैदो शब्दों में बयां करे तो -"कभी इसके निराकरण के बारे में ढंग से सोचा ही नहीं गया,हमेशा इस पैर काबू पाने की बात दोहरे गयी है"। मामला साफ़ है सभी शार्ट -टर्म सक्सेस के चक्कर में है,कोई इसके मूलभूत नाश के बारे में सोचता ही नहीं
अगर बारीकी से देखा जाये तो,ये आतंकवाद बदली या बहकी सोंच ,गरीबी और बेरोज़गारी का ही प्रतिफल हैदेह्सेत्गार्ड इसी का गलत फायदा उठाकर अपने संख्या बल में लगातार वृद्धि कर रहे है,जो हमारे लिए चिंता का कारण बना हुआ हैभोले जन मानस को संप्रदायी या गलत सामाजिक अवधारनाओ का पाठ पढ़ाकर इन्हें आत्मघाती बना रहे हैबात अगर इनसे ना बनी तो पैसो का लालच देकर इन्हें अपने कुनबे में शामिल कर ले रहे हैसाक्ष्य प्रमाणित करते है की, बच्चे और महिलाएं भी अब इन आतंकी दस्तों से अछूते नहीं बचेयह बीमारी एक महामारी का शक्ल लेते जा रही हैसब कुछ जानते हुए भी सरकार अब तक इसका निराकरण क्यों नहीं दूंढ पाई है ये विचारनीय प्रश्न हैव्यंग्यवश लगता है उनकी मंशा यही है की बेरोज़गारी,गरीबी और आतंकवाद जैसी समस्या ख़त्म हो जाये तो राजनीती के लिए मुद्दा ही नहीं बचेगाइसलिए हर बार नयी चासनी में डुबो इसको पेश करने की फ़िराक में ये लोग लगे रहते है. अब ऐसे में तो आम जनता का उपरवाला है मालिक है जाने कब किस की जान खतरे में जाये। "गन तले गणतंत्र" की यही लाईफस्टाइल है -लेट्स एन्जॉय!
इस गंभीर लेख के द्वारा मै जनमानस को सच्चाई का आइना दिखाने का प्रयास कियामेरे इस "सार्थक प्रयत्न" के आवाज़ को बुलंद करने में सहयोग करेधन्यवाद!

Friday, July 22, 2011

कुछ शब्द दिल से-2

हूत दिनों के बाद अपने व्यस्त जीवन से कुछ वक्त निकाल के अपनी बातों को आपके सामने रखने आया हूँआज कुछ कडवी सच्चाई के साथ शुरुवात करने की इच्छा हैआज हमारा देश आतंकवाद के आग में जल रहा हैकही अलगावादियों ने उग्रवाद मचा है तो कही नक्सलवादियों ने उत्पातइनसे अगर कोई आक्रांत है तो आम जीवनइनके जानलेवा हमलो में आम आदमी गाजर -मुली की तरह मसले जाते हैदो दिन मीडिया हल्ला करती है,नेता बयान देते है - पर असर वही सिफ़रउग्रवाद का कोई उत्तर दिखाई ही नहीं पड़तासत्ता पक्ष आश्वासन देकर ,तो विपक्ष सरकार की विफलता बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैजनता बेचारी उग्रवादी रूपी दानवो और बहरूपिये राजनीतिज्ञों के बीच एक बेचारे की तरह हर दिन अपना जीवन बचाने के लिए लड़ रही हैबड़े - बड़े वादे कर के सरकार भूल जाती है, जनता भी अपने आर्थिक और सामाजिक मजबूरी के कारण फिर एक नया दिन मानकर बीते हुए संत्रास को भूल एक नयी शुरुवात करती हैजनता के इस मजबूरी को भी मीडिया बेचने में कोई कसार नहीं छोडती, अख़बार के पहले पन्ने की हेडलाइन होती है - "जनता के जज्बे को सलाम,फिर पटरी पर लौटी ज़िन्दगी."। हमारी मजबूरी को भी अलंकार की चासनी में डुबोकर खबर को बेच दिया जाता हैहमारी बेचारगी पर भी साहस और कांफिडेंस का मुहर लाग जाता हैये कलम का ही कमाल है की एक खबर को दुसरे एंगल से लिख उसे मसालेदार और बेचने योग्य तो बना दिया जाता है,पर क्या लेखकार या पत्रकार कभी ये सोचने का प्रयास करता है की इस लेखनी की शक्ति से वो सच्चाई को धरातल पर उतर सकता हैपर उपभोक्तावादी संस्कृति में ये कोरी बातें है,यहाँ जो ज्यादा भड़काऊ और ग्लैमरस रहेगा वही बिकेगाआज उग्रवाद भी समस्या रहकर मीडिया के लिए उत्पाद तो राजनीतिज्ञों के लिए मौकापरस्ती का साधनमौके पे छका मारना कोई इनसे सीखेकभी मुंबई देहलता है तो कभी दिल्ली और कभी दंतेवाडा थरथरा उढ़ता है ,निर्दोष जनता मारी जाती है,लेकिन कईयों का पेट भरकर, जिनके लिए एक उत्पाद मात्र हैबिजनेस अच्छा हुआ तो जाम से जाम टकरा लिए जाते है ,गोया उन्हें ये खबर नहीं होती या ये इतने खोखले हो जाते है की इन्हें ये नहीं सूझता की इस कांड ने कितनो के घर के चूल्हों में पानी उड़ेल दिया,कितने के अपनों को छीन लियाइनपर मै उपहास करू या कटाक्ष समझ नहीं आता क्योंकि कही कही हम भी इसके लिए जिम्मेदार हैहमारी संवेदनाये बिकने लगी और हम ही उनके उपभोक्ता बन गएबड़े चाव से हम भावुकता के कसौटी पर कस के इन्हें देखने लगे और आलोचना करने लगेपर अनपी स्व-आलोचना भूल गएकभी मीडिया को कोसकर कभी व्यवस्था की कमी बताकर हम भी अपना पल्ला झाड़ ले गएकभी हम ने इन समस्याओ को अपने आपको जोड़कर नहीं देखा,बस खोखली संवेदना प्रकट कर अपने खोखली राष्ट्रीयता को भांजने की कोशिश की
भैया ! मुझे तो ऊपर से निचे तक सारी मशीनरी ही ढीली दिखाई पड़ती हैबंधू, वक्त है अपनी जिम्मेदारियो को सँभालने का, खोखली बयानबाजी कर के अपनी कोरी सामाजिक प्रतिस्था बढ़ने का नहींहमें आगे बढ़कर समस्याओ को अपने से जोड़कर देख , जितना बन सके समाज को एक जगह ला उन्हें सुधरने की गुंजाईश करनी चाहिएजब हम बदलेंगे समाज खुद बदलेगास्वनिर्माण से भारत निर्माण की और कदम बढ़ने का वक्त हैसमस्याए खुद- बा- खुद दूर हो जाएँगी एक कहावत है-"आसमान में भी छेड़ हो सकता है,एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों" । तो देर किस बात की- चले भारत निर्माण की ओर!
आज का मेरा " सार्थक प्रयत्न " अप सबो को किस अलग अपनी प्रतिक्रिया देकर अवस्य अवगत करायेधन्यवाद!

Tuesday, July 5, 2011

अल्लाह बचाए मेरी जान....

सुबह की सूरज पहली किरण से मेरी आँख खुली बहुत खुशनुमा मौसम था ,सोचा एक प्यारी नींद मार ही लेता हूँ मै नींदिया रानी के हाथ पकड़कर ख्वाबो के आगोश में पहुचने वाला ही था अचानक ही मेरे कानो में गूंजा -"अल्लाह बचाए मेरी जान.........",और सब कुछ चौपट ! ख्वाबो के दुनिया से सीधे बिस्तर पर गिर पड़ा। कानफाडू पॉप संगीत बाजू के शर्मा जी के यहाँ से रही थी। गाने के बोल मुझ पर अगर फिल्माए गए होते तो मेरे होठ से बरबस ये फुट पड़ता -"अल्लाह बचाए मेरी जान,मेरी नींदिया शोर के चक्कर में पड़ गयी" नींद तो टूट ही चुकी थी, बोझिल मन से बिस्तर छोड़ मै बालकोनी में गया। बाहर का दृश्य देखकर,मुझे याद आया आज शर्माजी के बेटी की शादी है। सुबह से ही नाच-गाना मौज मस्ती शुरू अब तो सारे दिन लगता है कानफाडू संगीत पुरे मोहल्ले का बैंड बजाने वाली है। मैंने अपना कलेजा मज़बूत कर लिया की अब अल्लाह ही मेरी जान बचा सकते है।
मैंने चाय के एक घूँट के साथ अख़बार पर नज़र डाली। जोर का झटका धीरे से लगा ,हेडलाइन थी - "जेबे ढीले करने के लिए हो जाये तैयार" हाय रे कमर तोड़ महंगाई ,जीना हराम हो गया है। पेट्रोल,डीजल ,रसोई गैस सब कुछ महंगे हो गए। अब घर का बजट गड़बड़ाएगा और गृहलक्ष्मी भी झल्लाएगी। मै आने वाले समय के दृश्य को सोचने में व्यस्त था ,तभी फिर मेरे कानो में गुंजा -"अल्लाह बचाए मेरी जान........" मै फिर जागा और उपरवाले को आवाज़ लगायी -"बचाले प्रभु"।तभी पत्नी की आवाज़ आई - "किससे बचने की गुहार लगा रहे हो" मै विनम्रता से बोला -"आप से बचाने वाला तो एक अल्लाह मियां ही है,और किसकी मजाल हो सकती है। वो मुस्करा दी,मैंने सोचा इस बार तो बच गया ,अगली बार कौन बचाएगा !

दफ्तर में जाते ही बॉस की बुलाहट आई। सहमते हुए दरवाज़े पे दस्तक दी, अन्दर से बॉस की कड़कती हुई आवाज़ आई-"आजाईये ......इतने फाइल पेंडिंग पड़े है....इन्हें कब निबटाकर दोगे....जिला प्रसाशन ने नाक में दम कर रखा है.....तुम से संभालता हा तो ठीक वरना नया ठिकाना ढूंढ़ लो" मैंने सहमते हुए कहा "जी सर हो जायेगा" घबराये कदमो से बाहर निकल ,टेंसन को दूर करने के लिए ताज़ी हवा खा रहा था,तभी फिर एक गुजरती हुई कार के स्टीरियो से आवाज़ आई-"अल्लाह बचाए मेरी जान...." मेरे होठों पर एक मुस्कान खिल उठी..."जब खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान "

शाम को घर पहुचकर जैसे ही जुटे उतारे , जीवन संगिनी जी की फरमाईश आई-"शर्माजी की बेटी की शादी है....कोई महंगी गिफ्ट खरीद लाओ...आखिर समाज में अपनी प्रतिष्ठा का सवाल है मैंने प्रेम से कहा -"पांच सौ में हो जायेगा " वो गुस्से से बिफर उठी- इतना तो हमारे सोसायटी का वाचमैन दे रहा है। मैंने अल्लाह मियां को याद करते हुए अपने पर्स को उनके हाथों में सौंप दिया। रात में शादी की पार्टी में पहुंचा, खूब चक्कलस किया। दबा के खाया , ताकि इतना महंगा गिफ्ट के एवाज़ में कुछ तो वसूली हो जाये। खाना लज़ीज़ था,पता ही चला कितना खा लिया। जब देखा सब हमें ही घुर रहे है तो शरमा कर प्लेट रख दिया गुनगुनाते हुए घर पहुंचे, दोनों पति-पत्नी के चेहरे पर संतोष के भाव थे। सोचा अच्छी नींद आयेगी , सुबह की कसर पूरी कर लेंगे पर मसालेदार भोजन ने अपना कमाल दिखाया,एसिडिटी को आमंत्रण देकर। करवट बदल-बदल कर मैंने कोशिश की पर अब देर हो चुकी थी पेट दर्द से फटा जा रहा था। दावा खाकर बालकोनी में टहलने आया,सहसा मेरे कानो में शर्मा जी के पार्टी में बज रहे डी.जे संगीत के बोल सुनाई पड़े- "अल्लाह बचाए मेरी जान की रजिया गुंडों में फंस गयी....." मै मन ही मन मुस्कुराया और अपने आप से बोला-"दिन भर की भेडचाल में हम कितने बार फसते है और चिलात्ते है ...अल्लाह बचाए मेरी जान......पर बेचारा एक उपरवाला करोडो जनता में किस-किस को बचाते फिरेंगे। पर जिंदगी एक सफ़र की तरह है चलती ही जाएगी। हम रोज़ बाधाओं में फसेंगे और उपरवाले को याद करेंगे। पर कुछ भी हो,अंग्रेजी में कहावत है - "दी शो मस्ट गो ओंन " सो चलना ही ज़िन्दगी है चलती ही जा रही है.....


आज का मेरा "सार्थक प्रयत्न " आम जिंदगी के बाधा और परेशानियो की एक झलक आपके सामने रखने कीमेरे प्रयास पर अपनी टिपण्णी अवश्य दें

Tuesday, June 21, 2011

"सॉरी" की फैशनेबल दुनिया

आज कलियुग में अंग्रेजी के "सॉरी" शब्द का महत्व बहुत बढ़ गया है। इस शब्द की महिमा अपरम्पार है गलती छोटी हो या बड़ी ,सब की एक ही दवा है - "सॉरी" राह चलते किसी को गलती से टक्कर मार दी या किसी का दिल दुखा दिया ,सॉरी शब्द आप के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। आज कल इस शब्द को दिनचर्या में हम हजारो बार यूज कर ही लेते है हमारी हिंदी भाषा में सॉरी शब्द को एक विदेशज शब्द के रूप में मान्यता मिल ही चुकी है।पर क्या "सॉरी" हिंदी भाषा के वैकल्पिक शब्द "क्षमा " के विनम्रता और गंभीरता को समेट पता है। इस प्रश्न के अन्वेषण करने की इच्छा मेरे मन को हर वक्त उद्वेलित करती रहती है
अगर हम दोनों शब्दों - " क्षमा कीजियेगा " और "सॉरी" के उपयोग के समय अगर अपनी बॉडी-लैंग्वेज पर ध्यान दे तो ,सॉरी के प्रयोग के समय उपरी दिखावा सा लगता है, पर 'क्षमा कीजियेगा" में विनम्रता और भारतीयता दोनों की झलक मिल जाती है। क्षमा मांगते वक्त सहज एक निश्छल मुस्कान आपके चेहरे पर खिल जाती है,वही दूसरी ओर सॉरी का प्रयोग महज एक खानापूर्ति लगती है लेकिन क्या करे ,फैशन का जमाना है।इसमें जो दीखता है वही बिकता है। इसलिए अंग्रेजी सभ्यता के पर्याय बन चुके शब्द "सॉरी" का प्रयोग धड़ल्ले से जारी है। सभी दिशाओ में "सॉरी " रुपी गंगा बह रही है। सिर्फ आधी कुटिली मुस्कान के साथ हाथ उठाकर "सॉरी" कह देने से ही काम चल जाता है। जैसे फैशन के युग में किसी वस्तु की गारंटी नहीं होती ,ठीक उसी तरह सिर्फ "सॉरी" कहने से क्षमा मिल जाये ये जरुरी नहीं है। सॉरी कहने के बाद दुसरे के मन में क्या भाव उत्पन्न होते है यह देखना लाजमी होगा।
आधे मन से कहे गए "सॉरी" से सामने खड़े व्यक्ति के मन में क्षमा भाव उत्पन्न होने में संशय होता है ,क्योंकि ये शब्द सिर्फ खानापूर्ति का पर्याय रह गया है। पर दुसरे दृष्टिकोण से सोचिये, अगर अप रुककर विनम्र भाव से उस व्यक्ति से "क्षमा कीजियेगा भाईसाहब " कहे और दो मिनट अपने सहज मुस्कान से उसे प्रभावित करने के चेष्टा करे तो उस के मानस -पटल पर क्षमा के भाव सकते है। और अगर वो आपके व्यवहार से प्रसन्न हो जाये ,तो क्षमा मिल भी सकती है। पर खोखले शब्द "सॉरी" भले ही हलके फुल्के ढंग से प्रयोग किया जाये, पर क्षमा मांगने के भाव उसमे आएंगे ही नहीं।
"सॉरी" शब्द चाइनीज फास्ट फ़ूड की तरह है, हर गली-मोहल्ले में मिल जाये और फट से तैयार। सिर्फ एक झटके में बोल दो ,लगी तो तीर नहीं तो तुक्का। समाज में झल्लाहट में यह भी सुनाने को मिलता है-"किसी का गला भी कट दो और सॉरी बोल दो" यह वाक्यांश "सॉरी" की सामाजिक मानदंड को आपको समझाने के लिए काफी है।

भारतीय संस्कृति में एक लोकोक्ति बहुत ही प्रचलित है-"क्षमा बडन को चाहिए ......." पर यह लोकप्रिय लोकोक्ति पाश्चत्य शब्द "सॉरी" के तिलस्मी दुनिया में धूमिल होती जा रही है। पश्चिमीकरण के अंधे दौड़ में हम अपने संस्कृति से विमुख होते जा रहे है। हम "क्षमा" शब्द के विनम्रता को छोड़ पाखंडी शब्द "सॉरी" का दमन पकड़ रहे है। यह "सांस्कृतिक-प्रदुषण" का परिचायक है। पाश्चात्यीकरण के अंधे दौड़ में हम अपने संस्कृति को भूलते जा रहे है। अब समय गया है,हमें अपने आप को,अपने समाज को और अपने देश को इस "सांस्कृतिक प्रदुषण" से बचाने के प्रयास करे वरना वह दिन दूर नहीं जब पूर्वी भारतीय संस्कृति विलुप्त हो जाये और हम पश्चिम के सांस्कृतिक गुलामी के बेडो में हम बंध जाये। अब भी वक्त है- "जाग जाओ"

आज का मेरा यह "सार्थक प्रयत्न" आपको अपनी संस्कृति से जोड़ने में कितनी सहायक रही ,अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देपहले इस विषय पर मै व्यंग लिखना चाहता था, लेकिन विषय की गंभीरता ने मुझे अपने चिंतन को आपके सामने रखने पर मजबूर कर दियाअगली बार इस विषय पर व्यंग लिखने का प्रयास करूँगा,आप सब समाजिक सरोकार से जुड़े इस ब्लॉग को अपनी आवाज़ बनाकर मेरी सोच को मज़बूत करे,यही मेरी हार्दिक गुज़ारिश है