Friday, December 19, 2014

कडवी घूँट!



आज कई दिनों के बाद ठंडक भरी हवा सर्दी का एहसास दे गयी.सोचा चलो रजाई की गर्माहट का मज़ा ले लिया जाये.अलसाये,बिस्तर पर लेटा हुआ मानसिक पटल पर अंकित स्मृति चित्रों पर नजर फेरनी शुरू की.बायोस्कोप की तरह कई चलंत मानसिक चित्रों का मायाजाल मेरे सामने तैरने लगा.अब मन तो चंचल है कभी इस डाल तो कभी उस डाल छलांगे मारने लगा .युवावस्था से बचपन तक कई स्मृतियाँ अनायास ही जागृत हो उठी.कहाँ बचपन की वो निश्चलता और कहा युवा अवस्था का खोखलापन.खोखला कहना इसलिए मुझे जायज लगा क्योंकि हमने असल जीवन सुधा का पान करना छोड़ दिया है.मानव मशीन की तरह यांत्रिक हो गया है.न तो बचपन की तरह अनुशाषित परन्तु बिंदास दिनचर्या,न बचपन के जैसे सच्चे मित्र.अब तो पैसे कमाने की मशीन की सिवा कुछ न बचा आदमी.सोशल मीडिया साईट्स पर सामाजिक सरोकार की बात लिख कर,बड़े बड़े डिंग हांकने के सिवा आखिर हम कर भी क्या रहे है.हम कम्पुटर या स्मार्टफोन के माध्यम से भिन्न-भिन्न सोशल प्लेटफार्म पर अपनी निजी राय तो बना देते है और बड़ी-बड़ी उपदेशी छंदों को जो हम अपने सामाजिक प्रतिष्ठा के वृद्धि के लिए हम अंकित करते है.क्या हमने कभी अपने निजी जीवन में उस एक सामाजिक सरोकार के प्रयासों में हमने अपना मूल्यवान योगदान दिया है? प्रश्न बड़ा ही विचिलित करने वाला है,आत्मा हिल गयी.पाया,बचपन में जब हम निष्कपट थे,निश्चल थे ये काम अपने आप हो जाया करते थे.अगर खेलते-खेलते देखा की किसी बुजुर्ग का झोला गिर गया,हम झटपट दौड़ जाते थे सामान समेटने.पर जब आज किसी की मनोदशा बिखर जाती है अपने किसी करीबी की,क्या हम उसे समेटने जाते है.सिर्फ दो बोल संवेदना के बोल कर खानापूर्ति कर ली जाती है.रविवार का दिन हम सो के गुजर देते है ,पर किसी गरीब के मोहल्ले में जाकर बच्चो को एक घंटा पढ़ा नहीं पाते.कहते हैं,एक ही दिन तो काम से छुट्टी मिली है थोडा आराम कर लेते है.ऑफिस में मूल्यवर्धन यानि वैल्यू-एडिसन की बाते बहुत करते है,लेकिन समाज के मूल्य वर्धन में सिर्फ ज्ञान बांचने से ही काम चला लेते हैं .कहा भी गया है “पर उपदेश कुशल बहुतेरे”!
हृदय द्रवित हो गया जब रजाई में बैठ कर भी कंप-कंपाते हुए भावनाओ के मायाजाल और आत्म चिंतन में ये ख्याल आया-उनका क्या,जिनको रजाई क्या ओढने को एक चादर भी मयस्सर नहीं है.अचानक ध्यान भंग हुआ,माँ की आवाज़ कानो में टकराई,चाय पी लो ठंडी हो जाएगी.चाय कडवी थी शायद इस आत्म-चिंतन की तरह या मन ही कडवा हो गया था विचारो के भंवरजाल में खुद को तलाशते तलाशते .....