Saturday, April 29, 2023

हमारा अस्तित्व

 

जिस दिन से हम जन्म लेते हैं एक प्रश्न साथ लिए आते हैं,हमारा अस्तित्व क्या है.पार्थिव अस्तित्व तो परिवार और कूल का मिल जाता है पर पर आत्मिक अस्तित्व की खोज में शायद पूरी उम्र गुजार देते हैं.जीवन माया मोह का ताना बाना है,उसी में हम उलझे रहते हैं.सांसारिक मापदंडो पर जो कारक दीखते हैं हम उसी में अपना अस्तित्व तलाशते रहते हैं.अच्छी शिक्षा,इज्जतदार नौकरी या पद हो या समाज में अच्छी प्रतिष्ठा हमने यही पैमाना तय कर लिया है अपने अस्तित्व को परिभाषित करने के लिए.अगर ये न मिला तो मानवीय संवेगों के ज्वार भाटा में घिरे रहो.इसी मनोदशा को विज्ञान ने “डिप्रेशन” कह दिया. अब ये मानवीय संवेगों की उथल पथल बहुत ही गंभीर रूप लेती जा रही है.हम भौतिकवादी होते जा रहें हैं और इसमें उलझ कर हम खुद को हानि पहुंचाते जा रहे हैं.

रामचरित मानस में यह उल्लेख आया है,”बड़े भाग मानुष तन पावा”.जन्म जन्मो का पुण्य हमें मनुष्य शरीर में जन्म दिलवाता है.प्रश्न यह है की भौतिक अस्तित्व और सामाजिक अवधारणाओ में खुद को तलाशते अपना जीवन व्यतीत कर अपने जीवन को सफल मान लें या इससे आगे कुछ और भी है!

समाज में खुद को स्थापित करना अपने भौतिक जीवन के कर्तव्य निभाना ये तो आवश्यक है ही पर आत्मिक उन्नति या संस्कार का उत्थान कैसे हो इस और भी हमे सोचना होगा . जन्म की सार्थकता कैसी हो ये हमे तय करना होगा .अपने संस्कारों की उन्नति कैसे हो,वैसा हमे निरंतर प्रयास करना होगा.पोजिटिव सोच विकसित करनी होगी.यही हमे अपने अस्तित्व को तराशने में हमारी मदद करेगा.

संस्कारों की उन्नति तभी संभव है जब हम खुद को भारत के अध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ें .श्रीमद भगवद गीता में तो जीवन मूल्यों को भगवान श्रीकृष्ण ने बहूत ही सरलता से रख दिया है.गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण में प्रभु श्री राम की मर्यादा पुरुषोत्तम छवि को सृजित किया तो उनके चरित्र वर्णन में उच्चतम जीवन मूल्यों को पिरो दिया .आज हमारे पास हमारे शास्त्रों में सैकड़ों दृष्टान्त हैं जो हमारे जीवन के उलझनों का उत्तर देने में पर्याप्त है और हमारा मार्गदर्शन कर हमें विपरीत परिस्थतियों से उबारने में सक्षम है.

जरूरत है इन शास्त्रों को पढने की,उनके शिक्षा को आत्मसात करने की.हम आज मशीनी युग में अध्यात्म से दूर होते जा रहे हैं.यही हमारे मनोवैज्ञानिक पतन का एक मजबूत कारण हैं.अगर हमें अपने आत्मिक और भौतिक अस्तित्व को पूर्णता से पाना है तो हमें अपने भारतीय संस्कारों और अध्यात्म की और झुकना पड़ेगा .अपने हृदय को इनकी शिक्षा को अपनाने के लिए खोलना पड़ेगा.धीरे धीरे हम पायेंगे हमारे संस्कार उचें हो रहे हैं हमारा व्यवहार बदल रहा है.यह बदलाव की पहली सीढ़ी है.जैसे जैसे विश्वास बढ़ता जाएगा परमपिता परमेश्वर से प्रेम बढ़ता जाएगा.इस प्रेम बंधन में न तो मानवीय संवेगों का ज्वार भाटा रहेगा न ही नकारत्मक मनोदशा.हर तरफ आनंद ही आनंद होगा.यही से अपने अत्त्मिक अस्तित्व को पहचानने का सफर आरम्भ होगा.

Tuesday, April 21, 2020

लॉकडाउन और हम!

लॉकडाउन,ये शब्द आज हर किसी के ज़बान पर है. हर जगह इसकी चर्चा है.आम शब्दों में इस कोरोना वायरस ने हमे घर की चारदिवारी में ला खड़ा किया.एहतियातन लॉकडाउन जरूरी भी है,ताकि इस वायरस के संक्रमण को नियंत्रित किया जा सके.आज हर अखबार और टीवी चैनलों पर इसका गम्भीर विश्लेष्ण हो रहा है.मेडिकल दृष्टिकोण से लेकर समाजिक कसौटी जैसी सभी परिपाटियों में इसे तौला जा रहा है.आज कोई विषय इस नव-कोरोना वायरस से महत्वपूर्ण नहीं.गम्भीरता ऐसी की आज सारा जनमानस भयाक्रांत है ,लेकिन एक सकारात्मक पक्ष ये भी है भारत ने जो कदम उठायें उसकी सर्वस्व सराहना हो रही है.इस बीमारी का एक ही बचाव है “सोशल डिसटेंसिंग”.बोलचाल की भाषा में समाजिक दुरी बनाना.ये बिमारी छूने या संपर्क में आने से फैलती है.अगर हम सोशल डिसटेंसिंग का पालन करे तो इसके बढ़ोतरी और हस्तानान्त्रण को रोका जा सकता है.
लेकिन इस लॉकडाउन के कुछ अनछुए पहलु भी हैं.जिसका उपरोक्त विश्लेषण से कोई लेना देना ही नहीं है.आज सुबह जागा तो मोटर गाड़ी का न शोर-शराबा था न बाहरी वातावरण में कोई कोलाहल.असीम शान्ति थी,इस शान्ति के बीच चिड़ियों के चह-चहाने की मधुर आवाज़ कानो में मिश्री घोल रही थी. ये आभास वर्षों बाद मिला था. शायद आखरी बार जब अपने गाँव  गया था तो इस अनुभूति को जी पाया था. भाग-दौड़ और शहरों की गतिशीलता में मनो ये छिप सा गया था.आज लगा वातावरण में जीवन का अस्तित्व है.पक्षियों का चहचहाना तो मनो भूल ही गया था.वर्षों बाद ये अलौकिक अनुभव प्राप्त हुआ.मोटर गाड़ी का आवागमन सडकों पर कम हुआ,कल कारखानों का शोर कम हुआ.अनुभव होता है अनायास जैसे प्रदुषण का स्तर कम होने लगा है.
घर में वक्त बिताने का मौका मिल रहा है.एक दुसरे को समझने का बेहतर मौका मिला है.ये मौका संबंधों की प्रगाढ़ता को भी बढाने का एक अद्भुत मौका है . दूर होकर भी भावनात्मक  रूप से  जुड़ना ,आपसी गिले शिकवे दूर करना यही तो मौके की नजाकत है.शायद इस मशीनी युग में परिवार से दूर होने लगे थे.पर इस लॉकडाउन ने हमे जुड़ने का मौका दिया. जो दूर हैं उन्हें परिवार के महत्व को समझने का एक अवसर मिल रहा है.
समय अगर आपके पास है तो आपके क्रिएटिविटी को भी निखारने का एक सुनहरा मौका है.चाहे वो लेखन हो,गायन हो या पाक कला ,आप इस मिल रहे वक़्त का बखूबी उपयोग कर सकते हैं. अपने अंदर छिपे कलाकार को बाहर निकालिए.ऐसा करने से वक्त भी कट जाएगा और समय का सदुपयोग भी होगा.
        
ऐसे सभी कार्य जो घर में बैठ के किये जा सकते है उनको निपटाते चलें. समय का सदुपयोग जरुरी है.मिले समय को जाया न करें.जब जरुरी हो तो ही घर से निकले और सामाजिक दुरी का कठोरता से पालन करें.
सरल भाषा में अपने विचारों को रखने का छोटा सा प्रयास है.वक्त मिला तो आगे भी इस विषय पर लिखने का प्रयास करूंगा.

Saturday, February 17, 2018

मेरी दृष्टि भाग १


आज कई दिनों के बाद लिखने बैठा हूँ.मौसम ने करवट ली है,सर्दी धीरे धीरे जाने की तैयारी में हैं,वही मौसम में गर्माहट दस्तक दे रही है.थोडा आलसपन सा छाया है.सोचा,चलो कुछ लिख लेते हैं थोड़े फुर्सत में.जैसे मौसम बदलाव के संकेत दे रहा है,ठीक वैसे संकेत हमारे सामाजिक परिवेश में भी दिखने लगे हैं.सामाजिक परिवर्तन के इस दौर में इन्टरनेट के सकारात्मक योगदान को नाकारा नही जा सकता.फेसबुक,ट्विटर जैसे कमाल के प्लेटफार्म आज वैश्विक समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम कर रहे हैं.पूरी दुनिया सिमट के एक “ग्लोबल विलेज” (वैश्विक गाँव) बन गयी है.ये तो इसका सकारात्मक पक्ष है.लेकिन सामाजिक प्रदुषण से ये भी अब अछूता नहीं रह गया.सांस्कृतिक प्रदुषण से लेकर उग्र मार्केटिंग सभी तरह के हथकंडे से अब ये अछूता नही रहा.डिजिटल मार्केटिंग तकनीक के जारी उपयोग  को अपने ज्ञान के धरातल में आंकने का एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ.
प्रबंधन शास्त्र “मार्केटिंग” का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है.डिजिटल युग में “डिजिटल मार्केटिंग” तकनीक भी अपने पाँव पसारने लगा है.इस तकनीक का व्यापक परायों आज कल सोशल साइट्स पर हो रहा है.इन्हें दो वर्गों में बांटा जा सकता है.पहला प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष.जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं,यहाँ भी सकारामक पक्ष और नकारात्मक पक्ष दोनों हैं.सकारत्मक पहलू ये है कि इन साईट्स पर बढ़ते यूजर्स की संख्या हमें एक व्यापक जनमानस को एक छोटे से प्रयास से जुड़ने का साधन देती है.आजकल कई तरह की ओनलाईन सर्वे ,हमें ये डाटा देती हैं की यूजर्स की पसंद नापसंद क्या है? ऐसे में अपने उत्पाद/सेवा के अनुसार उन सब तक पहुंचा जा साकता है.ये विज्ञापन का एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा है.
अब थोडा इसके दुसरे पक्ष को भी देख लें.एक कहावत आजकल बहूत प्रचलित है,जिसके जितने फोलोवेर्स सोशल साईट्स पर हैं,वो उतना ज्यादा लोकप्रिय है.जिस व्यापार साईट को ज्यादा हिट्स मिलते हैं उसकी पहुँच जनमानस में ज्यादा समझी जाती है.इसे प्रभावी बनाने के लिए कई नकारात्मक हथकंडो का भी इस्तेमाल आजकल आम बात हो गयी है.जैसे की कई ऐसी कम्पनियां हैं,जो फेक(जाली) यूजर्स की संख्या जोड़ कर एक अमुक व्यक्ति को लोकप्रिय बनाने में लग जाती हैं.अथवा,इन्टरनेट में व्यापर उत्पाद सम्बन्धी साईट्स में जाली हिट्स संख्या बढाकर उसे गूगल सर्च इंडेक्स के ऊँचे पायदान पर पहुंचाने की कवायद करती है.सरल शब्दों में अगर इसे समझे,जब “कीवर्ड्स” हम गूगल के सर्च में डालते हैं तब वह परिणामस्वरूप हमें सबसे लोकप्रिय साईट्स को लोकप्रियता के अनुसार क्रमवार में हमें दिखाता है,इन्ही “कीवर्ड्स” की लोकप्रियता को मैनेज किया जाता है.इस तरीके का प्रयास राजनितिक मार्केटिंग एवं व्यापर/उत्पाद/सेवा को लोकप्रिय बनाने में काफी हो रहा है.
“नकारात्मक डिजिटल मार्केटिंग “ का एक वीभत्स स्वरुप भी है.जिसे हम “उग्र मार्केटिंग” के श्रेणी में डाल सकते हैं.आजकल सोशल साईट्स पर “मीम”,“वायरल वीडियो”,”वायरल खबर” जैसे शब्द काफी लोकप्रिय हो चुके हैं.इन्हें धर्म,संप्रदाय,जाती,सामाजिक-द्वंद्ध की चासनी में डालकर खूब बनाया जा रहे है.और इन्हें फेसबुक-व्हात्सप्प जैसे इन्टरनेट की गंगा में बेख़ौफ़ बहाया जा रहा है.ये निजी स्वार्थ अथवा फायदे के लिए बनाया जा रहा है और भोली-भाली जनता इससे गुमराह भी हो रही है.
हमें अपने समझ से इन्हें समझने की आवश्यकता है.इसके मर्म को हम तभी पहचान सकते हैं जब हम इन्टरनेट और इन सोशल साईट्स का उपयोग काफी समझदारी से अनुशाषित होकर करें.और भले और बुरे में अंतर करना सीखे लें.ताकि,डिजिटल मार्केटिंग का सकारात्मक प्रयोग हमेशा चलता रहे और नकारात्मक प्रयोग पर अंकुष  लगे.
आने वाले समय में “मेरी दृष्टि “ सीरिज के तहत आपको अपने विचारों से अवगत कराता रहूँगा.मेरे राय निजी हैं और मेरे सीमित ज्ञान पर आधारित हैं.



Wednesday, June 28, 2017

छोटू-व्यथा

ये जो "छोटू" होते हैं न ?
जो चाय दुकानो या होटलों
वगैरह में काम करते हैं -
वास्तव में ये अपने घर के
"बड़े" होते हैं ---
कल मैं एक ढाबे  पर डिनर करने गया
वहा एक छोटा सा लडका था. जो ग्राहको
को खाना खिला रहा था कोई "ऎ छोटू"
कह कर बुलाता तो कोई "ओए छोटू"
वो नन्ही सी जान ग्राहकों के बीच जैसे
  उलझकर रह गयी हो.
यह सब मन को काट खाए जा  रहा था. मैने छोटू
को "छोटू जी" कहकर अपनी तरफ बुलाया
वह भी प्यारी सी मुस्कान लिये मेरे पास
आकर बोला-" साहब जी क्या खाओगे".
मैने कहा साहब नही भैया जी बोल
तब ही बताऊगाँ. वो भी मुस्कुराया और
आदर के साथ बोला भैया जी आप
क्या खाओगे ?
मैने खाना आर्डर किया और खाने लगा
छोटू जी के लिये अब मै ग्राहक से जैसे
मेहमान बन चुका था वो मेरी एक आवाज
पर दौडा चला आता और प्यार से पूछता
  भैया जी और क्या लाये.
खाना अच्छा तो लगा ना आपको???
और मै कहता हाँ छोटू जी आपके इस
प्यार ने खाना और स्वादिष्ट कर दिया.
खाना खाने के बाद मैने बिल चुकाया
और 100 रू छोटूजी की हाथ पर रख
कहा- "ये तुम्हारे है रख लो और मालिक से
मत कहना" . वो खुश होकर बोला जी
भईया!
फिर मैने पुछा क्या करोगो ये पैसो का
वो खुशी से बोला आज माँ के लिये
चप्पल ले जाऊगाँ 4 दिन से माँ के पास
चप्पल नही है. नंगे पैर ही चली जाती
है साहब लोग के यहाँ बर्तन माझने..
उसकी ये बात सुन मेरी आँखे भर आयी
मैने पुछा घर पर कौन कौन है,
तो बोला माँ है ,मै और छोटी बहन है
पापा भगवान के पास चले गये.
मेरे पास कहने को अब कुछ नही रह
गया था मैने उसको कुछ पैसे और दिये
और बोला आज आम ले जाना माँ के
लिये और माँ के लिये अच्छी सी चप्पल
लाकर देना और बहन और अपने लिये
आईसक्रिम ले जाना .
और अगर माँ पुछे किसने दिया तो कह
देना पापा ने एक भैया को भेजा था वो
दे गये.
इतना सुन छोटू मुझसे लिपट गया और
मैने भी उसको अपने सीने से लगा लिया.
वास्तव में छोटू अपने घर का बड़ा निकला.
पढाई की उम्र मे घर का बोझ उठा रहा है.
  ऐसे ही ना जाने कितने ही छोटू आपको
होटल, ढाबो या चाय की दुकान पर काम
करते मिल जायेंगे.
आप सभी से इतना निवेदन है उनको
नौकर की तरह ना बुलाये थोडा प्यार से
  पुकारें.आप का काम जल्दी से कर देगें.
आप होटलो मे भी तो टिप देते हो तो
प्लीज ऎसे छोटू जी की थोडी बहुत
मदद जरूर करे.
करके देखिये अच्छा लगेगा.

Wednesday, September 14, 2016

माँ हम शर्मिंदा हैं !




आज हिंदी दिवस है.ऐतिहासिक दृष्टि से मातृभाषा हिंदी के उत्थान एवं संरक्षण के लिए भारत सरकार ने सन् १९५३ में १४ सितम्बर को हिंदी दिवस घोषित किया . तब से हिंदी दिवस की औपचारिकता निभाने की परम्परा शुरू हो गयी.समाज के तथाकथित गणमान्य व्यक्ति अपनी लब्बो-लुवाब से अलंकृत भाषणों द्वारा हिंदी की महिमामंडन करके शमा बांध देते हैं.मीडिया को समाचार का मसाला मिल जाता है.हम भी थोड़ी देर अपने भावनाओं में राष्ट्रवाद की चासनी के साथ गौरान्वित महसूस कर लेते हैं.हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कई कसमे-वादे भी खा लेते हैं.अगली सुबह सभी कसमे वादे भूल हम फिर पश्चिमी बयार में उड़ने लगते है.मातृभाषा हिंदी हाशिये पर चली जाती है.ये पढने में कडवी लगे, पर ये सच है.संस्कृति का संरक्षक देश भारत,उपभोक्तावादी सोच से प्रभावित होता जा रहा है.आम बोल चाल की भाषा में ही हिंदी सिमटती जा रही है.आजकल तो युवा हिंदी को भी देवनागरी के बजाय रोमन लिपि में लिख डालते हैं.देव्तत्व से विकसित देवनागरी भी आज के इस युग में धुल फाकने के लिए मजबूर है.ये हिंदी के लिए दुर्दिन ही कह सकते है.
मैंने देखा है,”आज का युवा हिंदी पर मेरी अच्छी पकड़ है “ कहने की बजाये ये कहने में फक्र महसूस करता है की “ऍम वैरी प्रोफ़िसिएंट इन इंग्लिश” (मैं अंग्रेजी भाषा में प्रवीण हूँ).अंग्रेजी माध्यम से पढने का ये मतलब नहीं होता की अपनी मातृभाषा हिंदी को हीं हम पिछली वाली सीट पर धकेल दें और बाहर से आयातित भाषा अंग्रेजी को अपने मस्तक पर धारण कर लें.ऐसा किया तो,भारतीय संस्कृति का पतन तो निश्चित है साथ ही साथ हम अपनी देश के मिटटी की पहचान भी खो देंगे.अंग्रेजो की दासता तो छोड़ दी ,पर क्या उनकी भाषा की गुलामी हम छोड़ पायें? ये यक्ष प्रश्न मेरे अंतर को हमेशा झकझोर जाता है.उत्तर तो एक ही है-“नहीं”.सामाजिक प्रतिष्ठा के पाश्चात्य पैमाने पर हम आंग्ल भाषा बोलने और लिखने में गौरव की अनुभूति करते है और हिंदी बोल या लिख कर लगता है की शायद कम पढ़े लिखे या दुसरे दर्जे के नागरिक हैं.ये खोखली मानसिकता,हमारी सांस्कृतिक पतन को दस्तक दे रही है.हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों से दूर होते जा रहे हैं.
मेरी इन्ही बातों पर बहस मेरी एक महिला मित्र से कुछ साल पहले हो गयी जो एक बहुराष्ट्रीय प्रतिष्ठान में काम करती थी.उनका तर्क था की ग्लोबलायजेसन (वैश्वीकरण ) के इस दौर में हम हिंदी को कैसे बोझ की तरह से ढो सकते है! जबकि हमें विदेशी सम्पर्कसूत्रों अथवा टेली-कॉलर्स से बात करनी होती है और उनसे बात करने का एकमात्र साधन अंग्रेजी है.मैंने विनम्रता पूर्वक उनसे कहा आपके तर्क से मैं थोडा सहमत हूँ की व्यावसायिक बंधन अंग्रेजी के उपयोग को बढ़ावा देता है.पर जब हम उस दायरे से बाहर निकल सामाजिक एवं पारिवारिक वैचारिक आदान प्रदान या बोल चाल में और यथासंभव सरकारी कार्यों में हिंदी का उपयोग तो कर ही सकते हैं.सोशल मीडिया में हम अपनी अभिव्यक्ति तो हिंदी में कर ही सकते हैं.मैंने फिर उनसे पुछा की हम कितने भी बड़े पद को पा ले क्या हम अपनी माँ को भूलते या नजरंदाज कर पाते हैं.नहीं न ! तो फिर मातृ रुपी भाषा हिंदी को उपेक्षित कर क्या हम सही कर रहे हैं? उनके मानसपटल पर शुन्यता के भाव थे,वो निरुत्तर थी.  
ऐसी विकट स्थिति को देख कर अनायास ही यही निकलता है की “माता हिंदी हम शर्मिंदा हैं”.अभी भी आपको दासता के पाशों से मुक्त नहीं करा पाए.जो भाषा पुरे देश को एक सूत्र में पिरो सकती थी उसे आज भी पूर्ण रूप से राष्ट्रिय भाषा का अस्तित्व दिला नहीं पाए .बस यह एक सामान्य ज्ञान का तथ्य बनकर रह गया है.जरूरत है,यथासंभव मातृभाषा हिंदी का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करें ताकि इसका अस्तित्व तो बचे ही संवर्धन व् विकास भी हो.एक वैज्ञानिक भाषा को एकता सूत्र में विकसित करें.ऐसा माहौल बने की हिंदी के विकास के लिए भाषण देने के लिए सिर्फ १४ सितम्बर का ही मोहताज न होना पड़े बल्कि ये हमारे दैनिक कार्यक्रम का हिस्सा हो.सोच बदलने की जरुरत है! बदलाव स्वयं से शुरू होता है.तो आज ही खुद को बदल डालिए और हिंदी का अधिक से अधिक प्रयोग लेखन एवं बोलचाल के लिए कीजिये.आप बदलेंगे,तभी समाज बदलेगा.जब समाज बदलेगा तभी देश बदलेगा.

Saturday, June 11, 2016

विचारों की उत्पत्ति !



आज बहुत दिन बाद कुछ दिल की बातों को लेखनी लिखने के लिए बारम्बार मजबूर कर रही है. ऐसा अक्सर होता है जब मनोभाव के भंवरजाल में हम फंसे हो और अन्तर्वृति विचारों को समेकित करने का भरसक प्रयास करती है. भावनाएं सागर की लहरों की तरह होती है जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से प्रेरित होती है,वैसे ही विचार का प्रस्फुटन होता है. तो सोचा चलो विचार कैसे उत्पन्न होते हैं उसपर थोडा दिमाग लगा लूं.कुछ हलके फुल्के शब्दों में और अपने अंदाज़ में आज लिख डालूं.विज्ञान को बोल चाल की भाषा में पिरोने का प्रयास कर लूं.प्रश्न एक सरल सा है,मनोभाव या विचार कैसे उत्पन्न होतें है और क्या क्या कारक है जो इसे प्रभावित करते है.सतही तौर पर ,हम इसे अपने ज्ञान से जोड़ते हैं.पर क्या केवल ज्ञान ही विचारों के उत्पत्ति में किरदार निभाता है! इसका उत्तर एक आम आदमी के लिए देना थोडा कठिन होगा.तो चलिए हम इसके जड़ें तलासते हैं.
महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा है की “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज ऐसी संस्था है जो मानवता की धुरी है और जो मनुष्य समाज के बिना रह सकता है वो या तो भगवान् है या  जानवर”.मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है,मनुष्यों का एक तरह के समेकित व्यवहार करने वाला समूह समाज का निर्माण करते है. कई समाजों से मिलकर एक सभ्यता बनती है और सभ्यता के व्यावहारिक अभिव्यक्ति को हम सरल शब्दों में संस्कृति कहते हैं.यानि विचारों का दायरा,इन्ही समाज,सभ्यता और संस्कृति के आयामों पर मजबूती से टिका है .देश,रीती और काल सामाजिक मापदंडो को प्रभावित करते हैं.अब सभ्यता और संस्कृति और इनका समय और रीती से सम्बन्ध वैज्ञानिक शब्दों में समझना थोडा कठिन होगा.अगर थोडा आम भाषा में इन्हें पिरोने की कोशिश करें तो हम पाएंगे की समाजिक मूल्य और संस्कृति का “नैतिक और वैज्ञानिक ज्ञान” दोनों पर जबरदस्त प्रभाव होता है.हर समाज में सामाजिक मान्यताएं या यूं कहें की एक मनुष्य के लिए क्या करना जायज है या नाजायज वो हर देश या समाज  के संस्कितिक विषमताओं के कारण अलग अलग है.अब एक समाज में भी हर मनुष्य की बौधिक क्षमता एक नहीं होती .सरल शदों में बौधिक क्षमता में जो अंतर होता है वो किसी एक चीज़ को देखने के लिए दो मनुष्यों के नज़रिए में अंतर पैदा कर देता है.हर मनुष्य किसी भी घटना को अपने समझ के छनने से छानने का प्रयास करता है.
अब जब सभी कारकों को जोड़ दे तो बात “समझ” पर आ टिकती है.और ये भी साफ़ हो चूका है की ये समझ एक समाज में एक सी तो हो सकती है परन्तु एक नहीं हो सकती.यानि ये हर मनुष्य में अलग होती है जो उसके ज्ञान,समाज,सभ्यता और संस्कृति का प्रतिफल है.जब भी किसी वस्तू या ऑब्जेक्ट को हम देखते हैं या सोचते है तो अपने “समझ” के आधार पर जो मानसिक उद्गार या मनोभाव प्रगट करते है,यही विचार है.विचार की अभिव्यक्ति हमारे सोच को सार्थक आकार देती है और हमारे व्यवहार और आपसी संपर्क को परिभाषित करती है.यानि हम जो समझते है वोही सोचते हैं, लिखते है और बोलते हैं .जैसी समझ वैसे मनोभाव या विचार .
सरल शब्दों में विचार की उत्पत्ति उकेरने का प्रयास किया.अब थोडा विचार आप भी कर लें !

Thursday, July 30, 2015

अलविदा कलाम !

२७ जुलाई की शाम एक महापुरुष,एक दूरदर्शी हमें छोड़ के  हमेशा के लिए  चला गया। पूरा भारत अचम्भे में है ,क्या सच में हमारे कलाम हमें अकेला छोड़ के चले गये. एक ऐसा विचारक चला गया जिसने अंतिम वक़्त तक अपने मिशन को छोड़ा नही,वक्तव्य देते देते सांस ने भले साथ छोड़ दिया पर हमारे कलाम वही अडिग थे.अब यादें शेष हैं,पर कलाम हमारे दिल में  बसते हैं. नीजी तौर पर कभी उनसे मुखातिब होने का मौका नहीं मिला पर उनके आलेखों और वक्तव्यों से हमेशा प्रेरणा मिलती रही.उन्होंने एक सामान्य मनुष्य  को भी असाधारण बनने का रास्ता दिखाया।एक साधारण परिवार में जन्मे ,पर भारतीय विज्ञानं प्रोध्योगिकी को एक नए आयाम पर पहुंचाया। आधुनिक भारत की प्रतिरक्षा प्रणाली उनकी सदैव आभारी रहेगी। जितने भी परमाणु आधारित मिसाइल बने उसमे उनका सर्वाधिक योगदान रहा। अपने सरल व्यक्तित्व के कारन एक युथ आइकॉन के रूप में जाने जाते रहे और भारतीय गणतंत्र के सर्वोच्च पद को ११ वें राष्ट्रपति के रूप में सुशोभित किया। उनके परिचय को कलमबद्ध करना सूरज को आईना दिखाने के बराबर  है. जो खुद तेजस्वी व्यक्तित्व का धनी हो उसके बारे में लिखना मेरे जैसे तुच्छ लेखकों के औकात में नहीं। पर न लिखूं ,ये भी दिल गवाही नहीं  देता।  जिसे देख  कर शोध के क्षेत्र को चुना ,उसी प्रेरणा के अविरल स्रोत के प्रति अपनी शाब्दिक श्रद्धांजलि देने की उत्कण्ठा मुझे यहाँ ले आई. शब्द  या विशेषण इनके व्यक्तित्व के आगे छोटी पड़  रही हैं.
अपने उत्कृष्ट कृति इण्डिया विजन २०२० में उन्होंने कब का अपने सपनो के विकसित भारत की परिकल्पना लिख डाली थी। दुर्भाग्य है ,की आधे दसक पहले हीं हो वो रुखसत हो गये. पर उनका मार्गदर्शन भारत को निरंतर विकास के पथ पर अग्रसर रखेगा। कलाम साहब ने अपने एक और पुस्तक -इग्नाइटेड माइंडस में युवाओं के सोंच को झंझकोर के रख दिया। एक शिथिल  दिमाग जब एक्टिव हो जाता है तो क्या कर सकता है उसे सरलता से लिख डाला। इतना ही नहीं अपने वक्तव्यों के द्वारा  हमेशा युवाओं को प्रेरित करते रहे। एक जनप्रिय विचारक और लोकप्रिय राष्ट्रपति की रूप में ख्याति प्राप्त की. आज वो नहीं है ,भौतिक रूप से एक रिक्तता आ गयी.एक विचारक,एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व हमारे बीच न रहा। लेकिन कलाम अभी भी हमारे दिलों में जिन्दा हैं। हमारे मार्गदर्शक बनकर उनके विचार हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहेंगे। मृत्यु एक अटल सत्य है,इसे हमें स्वीकार करना ही होगा। प्रकृति का यही नियम है। पर उन्होंने वो ऊर्जा हमें  दे  डाली की की पूरा भारत वर्ष उसका अनुसरण कर एक और कलाम बन  सकता है। उनके वचनो को ,वक्तव्यों को अपने जीवन में उतार सके यही उनके प्रति  श्रद्धांजलि होगी।हो सके तो लौट के आना,अलविदा कलाम !