Friday, June 17, 2011

भारतीय व्यावसायिक शिक्षा व्यवस्था और पप्पू

और फिर पप्पू पास हो गया! भारतवर्ष के व्यावसायिक शिक्षा का अकैडमिक कैलेंडर पलटा और देखते ही देखते कई पप्पू पास तो हुए पर बेरोज़गारी का प्रमाण पत्र लेकर । उत्पादकता के इस युग में युवा अपने बेहतर करियर के सपने संजोये हुए एम.बी.ए , बी.टेक सरीखे कोर्सों के ओर रुख करते है । कुकुरमुत्तो की तरह उग आये शिक्षण संसथान इन्हें बेहतर भविष्य का झांसा देकर अपने राजस्व को तो बढ़ा लेते है पर प्लेसमेंट न दिला पाने की इनकी नाकामी छात्रो को अँधेरे में धकेल देती है। और एक उत्साही छात्र , निराश पप्पू बन जाता है ।
आज पप्पू निराश है,उसके पास फर्स्ट डिविजन से सजी वोकेशनल डिग्री तो है पर जॉब खोजने पर दूर तक दिखाई नहीं देती । थक-हार कर निराश पप्पू अपने हालत पर रोता है । उस पर शिक्षा ऋण को चुकाने का बोझ तो है , लेकिन वह भी माँ-बाप के अरमानो तले दब जाता है । पप्पू को डर रहता है कही जमाना अब उसे नाकारा और निकम्मा कहेगा । पप्पू का कुलांचे भरता मन मानसिक अवसाद की और चलने लगता है। समाज का व्यंग बाण उसके हृदय को चीरता चला जाता है।
यहाँ यह यक्ष प्रश्न उठता है , की पप्पू के इस हालत के लिए हम ,हमारी शिक्षा नीती , हमारा समाज कितना जिम्मेदार है । "हम" जिम्मेदार इसलिए है की पप्पू के सपनो के दामान को हम अपने इच्छा और मांगो से भरने लगते है। पप्पू इसे अपनों सपनो में मज़बूरी में मेल करते जाता है। ना चाह कर भी वो गलत करियर चुनने को वह मजबूर हो जाता है। अपने महत्वकांक्षाओ को हमारे सोंच के तले दबाकर वह पप्पू बन जाता है। दूसरी जिम्मेदारी समाज की आती है। समाज में गॉसिप और व्यर्थ की चर्चा इसका एक महत्वपूर्ण कारण है।फलां के बच्चे ने ये डिग्री ली , अभी इस कंपनी में है ,लाखों में कमाता है - ये वाक्यांश पप्पू और उसके माँ-बाप को विचलित करने में सक्षम है । यहाँ एक आदर्श कमाई का सपना जन्म लेता है। अपनी क्षमता भूल वो लुभावनी कोर्सेस की तरफ भागने लगता है। अच्छे संस्थान आज से कुछ साल पहले उंगलियों पर गिने जा सकते थे , जहाँ यह कोर्से चलाये जाते थे । पर वक्त बदला , व्यावसायिकता के इस अंधे युग में ग्लैमर से भरे सपने को भुनाने के लिए कई झोलाछाप संस्थान का जन्म हुआ । जो लाज़वाब तामझाम और चकाचौंध व्यवस्था के चासनी में डुबोकर इन कोर्सेस को बेचना शुरु किया। जॉब की संभावना तो ग्लोबलोय्जेसन के कारण बढ़ी पर इतनी नहीं जितनी संख्या में यह संस्थान उभर कर आये। परिणाम सामने है कुशल बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि। यानि ये संस्थान लाखों पप्पू हर साल पैदा कर रहे है। यहीं हमारी शिक्षा नीती भी कटघरे में आती है। जब हमारी सरकार जॉब मार्केट और अर्थव्यवस्था से वाकिफ है , तो इतंनी भारी संख्या में हर साल ऐसे संस्थाओ को मंजूरी क्यों दी जा रही है। यह विचार योग्य प्रश्न है,जिनके उत्तर हमें और हमारे समाज को ही तलाशने है।

आज मेरा यह "सार्थक प्रयत्न" कितना सार्थक रहा , अपनी प्रतिक्रिया देकर बतायेइस विषय पर तथ्यों के साथ फिर विश्लेषण करूँगायह भावनात्वक अन्वेषण की अभिव्यक्ति थी

3 comments:

  1. very gud attempt to raise an important social issue. today the structure of our education system is only based on scoring marks. so pappu is overburden with the expectation of parents and society. aur in ashaon ko pura karte karte Pappu pass to ho jata hai par uska astitwa samaj ki in ashao ko pura karte karte dhumil ho jata hai.

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  2. Well said Ram.....i have tried to raise the same issue...We youngsters have to take the challenge to change the society.

    "Hame naye bharat ka nirmaan karna hai"....so lets join hands.

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  3. @Mr. Bhushan.........very true....the situation u have cited above is becoming grim day by day.....Our present education system is full of drawbacks and has given an Upper edge to the dull students over the bright students......... at the time of Admission process; not only for the professional courses but also for higher classes........really!!!!! now the time has come to bring some concrete change in our education system, especailly examination system and misleading syllabus which gives only information and no knowledge...

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