Friday, July 22, 2011

कुछ शब्द दिल से-2

हूत दिनों के बाद अपने व्यस्त जीवन से कुछ वक्त निकाल के अपनी बातों को आपके सामने रखने आया हूँआज कुछ कडवी सच्चाई के साथ शुरुवात करने की इच्छा हैआज हमारा देश आतंकवाद के आग में जल रहा हैकही अलगावादियों ने उग्रवाद मचा है तो कही नक्सलवादियों ने उत्पातइनसे अगर कोई आक्रांत है तो आम जीवनइनके जानलेवा हमलो में आम आदमी गाजर -मुली की तरह मसले जाते हैदो दिन मीडिया हल्ला करती है,नेता बयान देते है - पर असर वही सिफ़रउग्रवाद का कोई उत्तर दिखाई ही नहीं पड़तासत्ता पक्ष आश्वासन देकर ,तो विपक्ष सरकार की विफलता बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैजनता बेचारी उग्रवादी रूपी दानवो और बहरूपिये राजनीतिज्ञों के बीच एक बेचारे की तरह हर दिन अपना जीवन बचाने के लिए लड़ रही हैबड़े - बड़े वादे कर के सरकार भूल जाती है, जनता भी अपने आर्थिक और सामाजिक मजबूरी के कारण फिर एक नया दिन मानकर बीते हुए संत्रास को भूल एक नयी शुरुवात करती हैजनता के इस मजबूरी को भी मीडिया बेचने में कोई कसार नहीं छोडती, अख़बार के पहले पन्ने की हेडलाइन होती है - "जनता के जज्बे को सलाम,फिर पटरी पर लौटी ज़िन्दगी."। हमारी मजबूरी को भी अलंकार की चासनी में डुबोकर खबर को बेच दिया जाता हैहमारी बेचारगी पर भी साहस और कांफिडेंस का मुहर लाग जाता हैये कलम का ही कमाल है की एक खबर को दुसरे एंगल से लिख उसे मसालेदार और बेचने योग्य तो बना दिया जाता है,पर क्या लेखकार या पत्रकार कभी ये सोचने का प्रयास करता है की इस लेखनी की शक्ति से वो सच्चाई को धरातल पर उतर सकता हैपर उपभोक्तावादी संस्कृति में ये कोरी बातें है,यहाँ जो ज्यादा भड़काऊ और ग्लैमरस रहेगा वही बिकेगाआज उग्रवाद भी समस्या रहकर मीडिया के लिए उत्पाद तो राजनीतिज्ञों के लिए मौकापरस्ती का साधनमौके पे छका मारना कोई इनसे सीखेकभी मुंबई देहलता है तो कभी दिल्ली और कभी दंतेवाडा थरथरा उढ़ता है ,निर्दोष जनता मारी जाती है,लेकिन कईयों का पेट भरकर, जिनके लिए एक उत्पाद मात्र हैबिजनेस अच्छा हुआ तो जाम से जाम टकरा लिए जाते है ,गोया उन्हें ये खबर नहीं होती या ये इतने खोखले हो जाते है की इन्हें ये नहीं सूझता की इस कांड ने कितनो के घर के चूल्हों में पानी उड़ेल दिया,कितने के अपनों को छीन लियाइनपर मै उपहास करू या कटाक्ष समझ नहीं आता क्योंकि कही कही हम भी इसके लिए जिम्मेदार हैहमारी संवेदनाये बिकने लगी और हम ही उनके उपभोक्ता बन गएबड़े चाव से हम भावुकता के कसौटी पर कस के इन्हें देखने लगे और आलोचना करने लगेपर अनपी स्व-आलोचना भूल गएकभी मीडिया को कोसकर कभी व्यवस्था की कमी बताकर हम भी अपना पल्ला झाड़ ले गएकभी हम ने इन समस्याओ को अपने आपको जोड़कर नहीं देखा,बस खोखली संवेदना प्रकट कर अपने खोखली राष्ट्रीयता को भांजने की कोशिश की
भैया ! मुझे तो ऊपर से निचे तक सारी मशीनरी ही ढीली दिखाई पड़ती हैबंधू, वक्त है अपनी जिम्मेदारियो को सँभालने का, खोखली बयानबाजी कर के अपनी कोरी सामाजिक प्रतिस्था बढ़ने का नहींहमें आगे बढ़कर समस्याओ को अपने से जोड़कर देख , जितना बन सके समाज को एक जगह ला उन्हें सुधरने की गुंजाईश करनी चाहिएजब हम बदलेंगे समाज खुद बदलेगास्वनिर्माण से भारत निर्माण की और कदम बढ़ने का वक्त हैसमस्याए खुद- बा- खुद दूर हो जाएँगी एक कहावत है-"आसमान में भी छेड़ हो सकता है,एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों" । तो देर किस बात की- चले भारत निर्माण की ओर!
आज का मेरा " सार्थक प्रयत्न " अप सबो को किस अलग अपनी प्रतिक्रिया देकर अवस्य अवगत करायेधन्यवाद!

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