बहूत दिनों के बाद अपने व्यस्त जीवन से कुछ वक्त निकाल के अपनी बातों को आपके सामने रखने आया हूँ । आज कुछ कडवी सच्चाई के साथ शुरुवात करने की इच्छा है । आज हमारा देश आतंकवाद के आग में जल रहा है। कही अलगावादियों ने उग्रवाद मचा है तो कही नक्सलवादियों ने उत्पात। इनसे अगर कोई आक्रांत है तो आम जीवन। इनके जानलेवा हमलो में आम आदमी गाजर -मुली की तरह मसले जाते है। दो दिन मीडिया हल्ला करती है,नेता बयान देते है - पर असर वही सिफ़र। उग्रवाद का कोई उत्तर दिखाई ही नहीं पड़ता। सत्ता पक्ष आश्वासन देकर ,तो विपक्ष सरकार की विफलता बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते है। जनता बेचारी उग्रवादी रूपी दानवो और बहरूपिये राजनीतिज्ञों के बीच एक बेचारे की तरह हर दिन अपना जीवन बचाने के लिए लड़ रही है। बड़े - बड़े वादे कर के सरकार भूल जाती है, जनता भी अपने आर्थिक और सामाजिक मजबूरी के कारण फिर एक नया दिन मानकर बीते हुए संत्रास को भूल एक नयी शुरुवात करती है। जनता के इस मजबूरी को भी मीडिया बेचने में कोई कसार नहीं छोडती, अख़बार के पहले पन्ने की हेडलाइन होती है - "जनता के जज्बे को सलाम,फिर पटरी पर लौटी ज़िन्दगी."। हमारी मजबूरी को भी अलंकार की चासनी में डुबोकर खबर को बेच दिया जाता है। हमारी बेचारगी पर भी साहस और कांफिडेंस का मुहर लाग जाता है।ये कलम का ही कमाल है की एक खबर को दुसरे एंगल से लिख उसे मसालेदार और बेचने योग्य तो बना दिया जाता है,पर क्या लेखकार या पत्रकार कभी ये सोचने का प्रयास करता है की इस लेखनी की शक्ति से वो सच्चाई को धरातल पर उतर सकता है। पर उपभोक्तावादी संस्कृति में ये कोरी बातें है,यहाँ जो ज्यादा भड़काऊ और ग्लैमरस रहेगा वही बिकेगा। आज उग्रवाद भी समस्या न रहकर मीडिया के लिए उत्पाद तो राजनीतिज्ञों के लिए मौकापरस्ती का साधन। मौके पे छका मारना कोई इनसे सीखे। कभी मुंबई देहलता है तो कभी दिल्ली और कभी दंतेवाडा थरथरा उढ़ता है ,निर्दोष जनता मारी जाती है,लेकिन कईयों का पेट भरकर, जिनके लिए एक उत्पाद मात्र है। बिजनेस अच्छा हुआ तो जाम से जाम टकरा लिए जाते है ,गोया उन्हें ये खबर नहीं होती या ये इतने खोखले हो जाते है की इन्हें ये नहीं सूझता की इस कांड ने कितनो के घर के चूल्हों में पानी उड़ेल दिया,कितने के अपनों को छीन लिया। इनपर मै उपहास करू या कटाक्ष समझ नहीं आता क्योंकि कही न कही हम भी इसके लिए जिम्मेदार है। हमारी संवेदनाये बिकने लगी और हम ही उनके उपभोक्ता बन गए। बड़े चाव से हम भावुकता के कसौटी पर कस के इन्हें देखने लगे और आलोचना करने लगे। पर अनपी स्व-आलोचना भूल गए। कभी मीडिया को कोसकर कभी व्यवस्था की कमी बताकर हम भी अपना पल्ला झाड़ ले गए। कभी हम ने इन समस्याओ को अपने आपको जोड़कर नहीं देखा,बस खोखली संवेदना प्रकट कर अपने खोखली राष्ट्रीयता को भांजने की कोशिश की।
भैया ! मुझे तो ऊपर से निचे तक सारी मशीनरी ही ढीली दिखाई पड़ती है। बंधू, वक्त है अपनी जिम्मेदारियो को सँभालने का, खोखली बयानबाजी कर के अपनी कोरी सामाजिक प्रतिस्था बढ़ने का नहीं। हमें आगे बढ़कर समस्याओ को अपने से जोड़कर देख , जितना बन सके समाज को एक जगह ला उन्हें सुधरने की गुंजाईश करनी चाहिए। जब हम बदलेंगे समाज खुद बदलेगा। स्वनिर्माण से भारत निर्माण की और कदम बढ़ने का वक्त है। समस्याए खुद- बा- खुद दूर हो जाएँगी। एक कहावत है-"आसमान में भी छेड़ हो सकता है,एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों" । तो देर किस बात की- चले भारत निर्माण की ओर!
आज का मेरा " सार्थक प्रयत्न " अप सबो को किस अलग अपनी प्रतिक्रिया देकर अवस्य अवगत कराये। धन्यवाद!
This is the good effort to improve our society..
ReplyDelete@shiv...........thanx for the comment
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